दहेज प्रथा : एक सामाजिक बुराई
                  “चन्द पैसों के लिए जिंदा जला दिया अरमानों को,
                  ये लड़ाई है हम सब की  मारो उन दहेज के दीवानों  को।”
       हमारी भारतीय संस्कृति में अनेक प्रथाएँ प्रचलित थी, जैसे बाल विवाह, विधवा विवाह आदि। जिनमें वर्तमान समय में दहेज प्रथा सर्वोपरि प्रथा बन गयी है जिसके कारण माता-पिता को अपनी पुत्री बोझ लगने लगती है। माता-पिता के इस दुःख को करने के लिए कन्याएँ आत्महत्या जैसा काम करने को मजबूर हो जाती है या फिर धन के लोभी ससुराल वालों के द्वारा मार दी जाती है। आज समाज में ऐसे लोग कम है जिनके घर में पुत्री के जन्म पर खुशियाँ मनायी जाती है। उन्हें शायद यह पता नहीं है कि हम कितना पाप कर रहे है। अगर संसार में हर व्यक्ति सिर्फ लड़के की ही चाह रखेगा तो प्रकृति का नियम समाप्त हो जायेगा। दहेज प्रथा के कारण ही माता-पिता को अपनी पुत्री के भविष्य की चिन्ता  होने लगती है। आज ऐसे इंसान मिलते है जो अपने इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासनिक अधिकारी बेटे को बहुत ऊंची बोली में बेचते है। अगर वह लड़के की पढ़ाई का पूरा खर्च लड़की वालों से लेना चाहते है तो यदि डिग्री धारक लड़की है तो उसकी डिग्री की बोली क्यों नहीं लगायी जाती।
      इतना शिक्षित समाज होते हुए भी वह पुरुष अपने घमंड से आज भी उबर नहीं पाया। जब तक पुरुष वर्ग के अन्दर घमंड रहेगा वह नारी को मात्र औरत समझेगा, उसे आदर नहीं देगा, तब तक यह शिक्षित समाज विकास नहीं कर पायेगा और न ही दहेज जैसे अभिशाप से मुक्ति ही पा सकेगा।
     दहेज ने हमारे समाज को स्वार्थी बना दिया है। दहेज के कारण ही निम्न पंक्तियों का उद्भव हुआ –
“अरे किसी के दिल का टुकड़ा, वह भी रुपये समेत चाहिए
जरा बताओ हमें जवानों, तुम्हें दहेज क्यों चाहिए
कितना त्याग वे कन्याएँ करती है, क्या तुमने सोचा है
तुम क्या जानो अपना घर, छोड़ देने का दुःख क्या होता है
अरे  किसी की बेटी लाकर, तुम एहसान नहीं करते हो
कचरा नहीं किसी के घर का, जो अपने घर में भरते हो
क्या विवाह की आवश्यकता सिर्फ लड़की को होती है
अगर नहीं तो फिर लड़कों को धन की चाहत क्यों होती है
लड़कों को जो जीवन में जीवन साथी एक चाहिए
तो जरा बताओ हमें जवानों तुम्हें दहेज क्यों चाहिए ।”

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